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| Der Heilige Antonius von Padua |
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| VIERTENS |
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| Zwei Stimmen von oben |
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| In Sachen des Klosters ausgesandt, |
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| Kam Bruder Antonio einst über Land. |
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| Und ihm zur Seite, mit leichtem Fuß, |
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| Schritt Doktor Alopecius. |
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| (Ach! das war auch so einer von denen!) |
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| Rechts und links begrüßt er die ländlichen Schönen, |
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| Faßt sie beim Kinn, anmutig-milde, |
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| Schenkt ihnen gar schöne Heiligenbilde, |
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| Und macht auch wohl so hin und wieder |
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| Dominus vobiscum! über das Mieder. |
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| Wie man denn meistens auf der Reis’ |
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| Die Schönheit der Natur erst recht zu würdigen weiß. |
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| Bruder Antonio aber dagegen, |
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| Dem nichts an irdischer Liebe gelegen, |
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| Trug einzig allein in Herz und Sinn |
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| Die süße Himmelskönigin. |
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| Er wandelt abseit und schaut sich nicht um, |
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| Er spricht das salve und sub tuum praesidium. |
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| So zogen sie weiter. Der Tag verstrich. |
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| Der Abend wird schwül. Es türmet sich |
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| Ein grau Gewölk am Horizonte, |
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| Worin’s schon ferne zu donnern begonnte. |
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| Dokter Alopecius, in diesen Sachen |
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| Ein arger Spötter, spricht mit Lachen: |
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| „Na, was hat denn wieder der alte Brummer? |
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| Rumort ja erschröcklich in den Wolken ’rummer?“ |
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| Und näher wälzt sich der Wolkenballen. |
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| Gewaltig braust der Sturm. Die Donner schallen. |
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| Bruder Antonio schaut sich nicht um, |
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| Er spricht das salve und sub tuum praesidium. |
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| Der Doktor aber nimmt sein Paraplü, |
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| Spannts auf und spricht: „Jetzt kommt die Brüh!!“ |
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| Horch! – Plötzlich, wie des Gerichts Trompete, |
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| Donnerte von oben eine Stimme: „Töte!! Töte!!!“ |
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| „Schon recht!!!“ – ertönt voll Grimme |
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| Eine zweite Stimme. |
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| Huitt!! – Knatteradoms!! – ein Donnerkeil – |
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| Und Alopecius hat sein Teil. |
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| Bruder Antonio schaut sich nicht um, |
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| Er betet das salve und sub tuum praesidium. |
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| So wandelt er weiter in stillem Gebete. – |
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| Und wieder donnert die erste Stimme: „Töte! Töte!!!“ |
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| Ja, töte, töte!! Sie leid’t’s halt nit!!!“ |
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| So ruft voll Grimme |
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| Die zweite Stimme. |
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| Und grollend zog das Wetter hinunter. – |
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| – Antonio aber, getrost und munter, |
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| Zieht seines Weges fürderhin |
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| (Dank dir, o Himmelskönigin!) |
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| Bis Padua, die werte Stadt, |
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| Ihn wieder aufgenommen hat. |
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