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| Der Heilige Antonius von Padua |
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| DRITTENS |
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| Unserer Frauen Bildnis |
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| Ein hoffnungsvoller junger Mann |
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| Gewöhnt sich leicht das Malen an! – |
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| Auch Bruder Antonio, welcher nun, |
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| Von seinen Sünden auszuruhn, |
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| Zu Padua im Kloster lebt |
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| Und geistlicher Bildung sich bestrebt, |
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| Hat es gar bald herausgebracht, |
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| Wie man die schönen Bilder macht, |
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| Und malt auf Gold, schön rot und blau, |
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| Das Bildnis unsrer lieben Frau. |
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| Umflattert von der Englein Chor |
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| Tritt sie hervor aus des Himmels Tor. |
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| Den blauen Mantel faßt die Linke, |
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| Die Rechte sieht man sanft erhoben, |
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| Halb drohend, halb zum Gnadenwinke, |
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| So kommt die Königin von oben. |
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| Doch ihr zu Füßen windet sich |
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| Der Teufel schwarz und fürchterlich. |
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| Dem Teufel war’s nicht einerlei, |
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| Daß er so gar abscheulich sei. |
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| Er fängt alsbald das Grübeln an, |
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| Wie er den Bruder kränken kann. |
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| Ein Kloster lag nicht weit von hinnen, |
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| Besetzt mit Karmeliterinnen, |
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| Und war als Kustorin allda |
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| Die keusche Jungfrau Laurentia. – |
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| Bescheiden, still und glaubensfroh, |
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| Hat sie der gute Antonio, |
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| Den alles Gute stets ergetzt, |
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| Schon längst von Herzen hochgeschätzt. |
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| Natürlich im allgemeinen und überhaupt, |
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| Wie’s unsere heilige Kirche erlaubt. |
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| Einst als er so in stiller Nacht, |
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| Von Träumen umgaukelt, halb schläft, halb wacht, |
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| Tritt bei des Mondes Dämmerhelle |
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| Schwester Laurentia in seine Zelle |
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| Und beugt sich nieder und seufzt und spricht: |
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| „Antonio, Lieber, kennst du mich nicht? |
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| Ich bin entflohn aus des Klosters Zwang, |
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| Konnt’ nicht widerstehn meines Herzens Drang, |
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| Bin aus Liebe zu dir und großem Verlangen |
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| Mit dem Silbergerät davongegangen. |
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| Auf auf, Antonio! tue desgleichen |
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| Und laß uns in fremde Lande entweichen!“ |
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| Dem Bruder tät die Sache scheinen, |
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| Nimmt die heiligen Gefäße aus den Schreinen, |
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| Packt’s in die Kutten emsiglich |
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| Und läßt das Kloster hinter sich. – |
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| Aber da draußen im freien Feld |
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| Ward ihm die Lieb und Lust vergällt. |
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| Statt der guten Jungfrau Laurentia |
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| War plötzlich der leidige Satan da. |
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| „Heihei!“ – lacht der Teufel – „so ist’s der Brauch! |
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| Du maltest den Teufel, nun zahlt er auch!“ |
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| Flugs flog er auf und dem Kloster zu |
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| Und rüttelt die Paters aus ihrer Ruh. |
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| Bruder Antonio wär’ schier verzagt, |
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| Ringt seine Hände, weint und klagt, |
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| Vermeinend, daß aus dieser Beschwer |
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| Nirgends ein Ausgang zu finden wär’. |
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| Doch sieh! Aus dunklem Wolkenflor |
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| Tritt unsre liebe Frau hervor. |
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| Sei getrost, Antonio, ich bin voller Gnaden. |
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| Der böse Feinde soll dir nicht schaden. |
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| Mein Bildnis in des Klosters Hallen |
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| Sah ich mit gnädigem Wohlgefallen!“ |
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| Sprach’s und winkte mit der Hand, |
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| Schwebte nach oben und verschwand. |
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| Alsbald so kommt der ganze Haufen |
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| Der Klosterbrüder herzugelaufen |
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| Und führen mit vielem Heh! und Hoh! |
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| Zum Kerker den guten Antonio. |
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| Sei getrost, Antonio, ich bin voller Gnaden. |
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| Der böse Feinde soll dir nicht schaden. |
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| Mein Bildnis in des Klosters Hallen |
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| Sah ich mit gnädigem Wohlgefallen!“ |
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| Sprach’s und winkte mit der Hand, |
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| Schwebte nach oben und verschwand. |
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| Alsbald so kommt der ganze Haufen |
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| Der Klosterbrüder herzugelaufen |
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| Und führen mit vielem Heh! und Hoh! |
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| Zum Kerker den guten Antonio. |
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| Im Gefängnis aber, in einer Ecken, |
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| Hockt der Teufel mit Knurren und Zähneblecken. |
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| Der Prior tunkt ein den langen Wedel |
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| Und besprengt ihm den harten Teufelsschädel, |
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| Und plärrend und mit Ach! und Krach! |
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| Fährt er ab mitsamt dem Fensterfach. |
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| Recht nützlich ist die Malerei, |
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| Wenn etwas Heiligkeit dabei. |
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